लफ्ज़ “अल्लाह” की तहक़ीक़-05

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    एक कौल यह भी है की यह “ला-ह यलूहु” से निकला है जिसके मायने छुप जाने और पर्दा करने के है, और यह भी कहा गया है की यह “अलाहुल-फ़सील” से है! चूँकि बन्दे उसी की तरफ़ फ़रियाद और ज़ारी से झुकते है, उसी के दामने रहमत को हर हाल में थामते है इसलिए उसे “अल्लाह” कहा गया! एक कौल यह भी है की अरब के लोग ‘अलहुर्रजुलु यअलहू’ उस वक़्त कहते है जब किसी अचानक चीज़ और बात से कोई घबरा उठे और दुसरा उसे पनाह दे और बचा ले! चूँकि तमाम मख्लूक़ को हर मुसीबत से निजात देने वाला अल्लाह सुब्हान्हू व तआला है, इसलिए उसे ‘अल्लाह’ कहते है जैसा की कुरआने करीम में मौजूद है:
    यानी वही बचाता है और उस पर कोई नहीं बचाया जाता

    असली नमतें देने वाला वही है! फ़रमाता है की तुम पर जितनी नेमतें है वे सब अल्लाह तआला की दी हुई है! वही खिलाने वाला है , फ़रमाता है की वह खिलाता है और उसे कोई नहीं खिलाता! वही ‘मूजिद’ है, फ़रमाता है की हर चीज़ का वजूद अल्लाह की तरफ से है ! इमाम राज़ी का मुख्तार (पसंदीदा) मज़हब यही है की लफ्ज़ ‘अल्लाह’ मुश्तक़ (किसी लफ्ज़ से निकला हुआ) नहीं है! ख़लील, सीबवैह, अक्सर उसूली और फ़ुकहा हज़रात का यही कौल है! इसकी बहुत-सी दलीले भी है! अगर यह मुश्तक़ (किसी और लफ्ज़ से निकला हुआ) होता तो इसके मायने में बहुत से अफ़राद की शिर्कत होती, हालाँकि ऐसा नहीं! फिर इस लफ्ज़ को मोसुफ़ बनाया जाता है और बहुत-सी इसकी सिफ़तें आता है जैसे ‘रहमान, रहीम, मालिक,
    क़ुददूस’ वगैरह, तो मालूम हुवा की यह मुश्तक़ नहीं!




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