धर्म और हम

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  • आप किसी भी धर्म को तब तक नही समझ सकते जब तक उस धर्म मे आपकी आस्था न हो, आज के दौर की सबसे बड़ी बकवासबाज़ी की असल और इकलौती वजह यही है कि हम सब हर धर्म का विद्वान बनना चाहते हैं,
    आस्था के बाद दूसरी चीज़ है स्टडी , स्टडी करके आप तबतक किसी धर्म के जानकार नही बन सकते जब तक आपको वो ज़बान महारत के साथ न आती हो जिस ज़बान मे उस धर्म के मूल ग्रन्थ हैं, सिर्फ़ अनुवाद पढ़कर आप विद्वान नही बन सकते और मुझे मालूम है कि मेरी इस बात पर सबसे ज़्यादा लोगों को ऐतराज़ होगा , लेकिन यह हक़ीक़त है, अगर वेदों का विद्वान बनना है तो संस्कृत और क़ुरान का विद्वान बनना है तो अरबी सीखनी पड़ेगी, नही तो फिर उन लोगों पर यक़ीन करो जिन्होंने उन ग्रन्थों को उन ग्रन्थों की मूल ज़बान मे आस्था के साथ समझा है
    आस्था तो है ही नही मालूमात का आलम यह है कि किसी से कहीं कुछ सुन लिया , कहने वाले पर भी ध्यान नही दिया कि उसके नॉलिज का लेवल क्या है ? कहीं से कोई किताब पढ़ ली, न यह देखा कि वो किताब किसने छापी ? कहां से छपी ? उस किताब मे जिन किताबों का ज़िक्र है उस नाम की किताब है भी या नही या उस किताब मे यह लिखा भी है या नही जो उस किताब के हवाले से इसमे छाप दिया गया है, वो बात अगर है भी तो किन हालात मे कही गयी ? किन हालात के लिए कही गयी ? इतना समझने की परेशानी तो ख़ैर कोई क्यों उठाये ?
    इसलिए किसी भी धर्म पर सवाल उठाने से पहले यह समझ लो कि एक तो आपकी आस्था उस धर्म मे नही दूसरे आपकी मालूमात का लेवल क्या है ? मालूमात की सोर्स क्या है ? आप 10 रूपये की 12 पन्नो की कोई किताब पढ़कर उस धर्म को चैलेंज करने लगते है जिस धर्म पर सदियों से रिसर्च हो रही होती है, लोगों की पूरी पूरी ज़िंदगियां निकल गयी एक बात को समझते सनझते!
    Nadeem Akhter 







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