लफ्ज़ “अल्लाह” की तहक़ीक़-03
बाज़ लोगों का यह कौल भी है की यह मुश्तक़ (दुसरे लफ्ज़ से निकला हुवा ) है और इस पर रुबा का एक शे’र बतौर दलील पेश करते है, जिसमें मस्दर “तअल-ह” का बयान है! जैसे की इब्ने अब्बास से मरवी है की वह :
बाज़ लोगों का यह कौल भी है की यह मुश्तक़ (दुसरे लफ्ज़ से निकला हुवा ) है और इस पर रुबा का एक शे’र बतौर दलील पेश करते है, जिसमें मस्दर “तअल-ह” का बयान है! जैसे की इब्ने अब्बास से मरवी है की वह :
पढ़ते थे ! मुराद इससे इबादत है, यानी उसकी इबादत की जाती है और वह किसी की इबादत नहीं करता! मुजाहिद रह० वगैरह कहते है की बाजों ने इस पर इस आयत से दलील दी है :
एक और आयत में है :
यानी वही अल्लाह है आसमानों में और ज़मीन में, वही है जो आसमान में माबूद है और ज़मीन में माबूद है!
इमाम सीबवैह ख़लील से नक़ल करते है की असल में यह ‘इलाह’ था, जैसे ‘फ़िआल’ फिर हमज़ा के बदले ‘अलिफ़ व लाम’ लाया गया जैसे “अन्नास” की इसकी असल “उनास” है! बाजों ने कहा है की लफ्ज़ ‘अल्लाह’ की असल ‘लाह’ है ‘अलिफ़ लाम’ हुरुफ़े ताज़ीम के तौर पर लाया गया है! सीबवैह का भी पसंदीदा कौल यही है! अरब शायरों के अशआर में भी यह लफ्ज़ मिलता है! कसाई और फर्रा कहते है की इसकी असल ‘अल-इलाहू’ थी, हमज़ा को हज़फ़ किया और पहले ‘लाम’ को दुसरे में जोड़ किया जैसे की ‘लाकिन्ना हुवाल्लाहू रब्बी’ में ‘लाकिन अ-न’ का ‘लाकिन्ना’ हुवा है! चुनाँचे हसन की किराअत में “लाकिन अ-न” ही है और इसका इश्तिकाक़ (निकलने का माददा) ”वलह” से है और इसके मायने ‘हैरान कर देने’ के है! ‘वलहुन’ अक्ल के चले जाने को कहते है! चूँकि ज़ाते बारी तआला में और उसकी सिफतों की तहक़ीक़ में अक्ल हैरान व परेशान हो जाती है इसलिए उस ज़ाते पाक को अल्लाह कहा जाता है!
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