लफ्ज़ “अल्लाह” की तहक़ीक़-06

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  • एक दलील इसके मुश्तक़ न होने की कुरआन की आयत 'हल तअलमु लहू समिय्या' (यानी क्या उसका हम-नाम भी कोई जानते हो?) बयान की जाती है, लेकिन यह गौर-तलब है । वल्लाहु आलम ।
    बाज़ लोगों ने यह भी कहा है कि यह लफ्ज़ इबरानी भाषा का है , लेकिन इमाम राज़ी ने इस क़ौल को ज़ईफ़ (कमज़ोर) कहा है और वास्तव में वह है भी ज़ईफ़ । इमाम राज़ी फ़रमाते है कि मख्लूक़ की दो क़िस्में है, एक तो वे जो अल्लाह की मारिफ़त (पहचान) के आख़री दर्जे पर पहुँच गए। दूसरे वे जो इससे मेहरूम है
    जो हैरत की अंधेरीयों और जहालत की काटों भरी वादियों में पड़े हुवे है । वे तो अक़्ल को रो बैठे है और रूहानी कमालात को खो बैठे है, लेकिन जो मारिफ़त के किनारे पर पहुँच चुके है , जो नुरानियत के फैले हुवे बाग़ों में जा ठहरे है, जो किब्रियाई और जलाल की वुसअत का अंदाज़ा कर चुके है वे भी यहाँ तक पहुँचकर भौचक्के रह गए है , और अल्लाह की बारगाह और दरबार मे हैरान खड़े रह गये है ।


    गर्ज़ की सारी मखलूक़ उसकी पूरी मारिफ़त से आजिज़ और हैरान व खोये हुए है ! पस इसी सबब उस पाक ज़ात का नाम ‘अल्लाह’ है ! सारी मखलूक़ उसकी मोहताज, उसके सामने झुकने वाली और उसकी तलाश करने वाली है ! इस मायने में उसे ‘अल्लाह’ कहते है जैसे की ख़लील का कौल है! ‘लाहतिश्शमसु’ (की सूरज ऊँचा हो गया) चूँकि परवरदिगार-ऐ-आलम भी सबसे बुलंद व बाला है उसको भी ‘अल्लाह’ कहते है और ‘अ-ल-ह’ के मायने इबादत करने के और ‘त-अ-लहू’ के मायने हुक्म मानने और कुर्बानी करने के है! ख़ुदा तआला की इबादत की जाती है और उसके नाम पर कुरबानियाँ की जाती है इसलिए उसे ‘अल्लाह’ कहते है! हज़रत इब्ने अब्बास रज़ी0 की किराअत में है:





    इसकी असल ‘अल-इलाहु’ है !

    To be cont....

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